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पश्चिमी शिक्षा या गुलामी की तामील 


भूमंडलीकरण के युग में विश्व समुदाय के बीच शिक्षा की महत्ता बढ़ती जा तरह है। लोग अपने बच्चों को मिशनरी स्कूलों में पढ़ाकर ख़ुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं । उनके अनुसार केवल पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करके ही उनके बच्चे अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं । बड़े बड़े स्कूलों और उनके बनावट से आकर्षित लोग भूल जाते हैं शिक्षा का असल अर्थ।  वह भूल जाते हैं कि शिक्षा अर्जित करने का उद्देश्य सिर्फ़ नौकरी पाना ही नहीं बल्कि देश हित के लिए काम आना भी है । और वह शिक्षा ही क्या जो आपको गुलाम बना कर छोड़ दे।
    पश्चिमी शिक्षा अपनाना कहीं से भी देश हित में नहीं अपितु इसके विपरीत रही है । क्योंकि इसने देश की संस्कृति एवं आवश्यकताओं के अनुरूप होना हमें सिखाया ही नहीं। जब तक शिक्षा व्यक्ति को एक ज़िम्मेदार नागरिक नहीं बनाती तब तक शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं की जा सकती।
    हमारे प्रगति ना होने का कारण यह भी रहा कि हमनें सिर्फ़ औद्योगिक शिक्षा पर ही विशेष बल दिया । अगर केवल अभियंता, चिकित्सक,वैज्ञानिक और कुशल व्यापारी बनने के अलावा हमनें सांस्कृतिक धरोहर,प्राचीन ज्ञान-विज्ञान,नागरिक दायित्व तथा इतिहास की पुनर्व्याख्याय पर बल देकर सभी स्तर से अनिवार्य किया होता तो आज हालात कुछ और होते। लेकिन आधुनिक समाज की यह स्तिथि है कि हम देश के सभी उच्च शिक्षा केंद्रों को मिला दें तो भी देश के १०% युवा को शिक्षित करने में सक्षम नहीं हैं।
 आज जहां हम विश्व के शक्तिशाली और विकसित राष्ट्रों के बराबर होने का सपना देख रहे हैं वहीं हम यह भूल जा रहें हैं कि ९०% स्नातक देश के विकास में उपर्युक्त योगदान देने में असमर्थ हैं जबकि देश का विकास देश के शिक्षित तथा युवा वर्ग पर आधारित है।
 ” जीवन का सर्वांगीण विकास ” जिस शिक्षा का मूल मंत्र हुआ करता था वह शिक्षा संकुचित होकर मात्र व्यवसायिक शिक्षा का रूप ले चुकी है।  देश की शिक्षा का गिरता स्तर देख हम मात्र राजनैतिक संकल्प को ही इसका कारण नहीं बता सकते बल्कि हम युवा स्वयं ही इसके सबसे बड़े दोषी हैं। हमें सिर्फ़ ज्ञान के स्तर को प्रमाणित करने वाली डिग्रियां , ऊंची इमारतों वाले स्कूल , कॉलेज ही लुभाते हैं , हमनें कभी सुयोग्य और सच्चनित नागरिक बनाने वाली शिक्षा का आदर सम्मान किया ही नहीं ।
जिस पश्चिमी शिक्षा के विवरण पत्र में ही जात-पात और फूट डालने जैसी प्रवित्तियों को बढ़ावा दिया गया हो वह शिक्षा हममें सदाचार,परमार्थ,जनहित भावना,परोपकार,कर्तव्य पालन , सत्य व्रत , धर्म के प्रति निष्ठा , उच्च विचार आदि संस्कारों तथा आदतों को विकसित कैसे होने दे सकती है ।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि आज ईसाई मशीनरियों का आग्रह जिसमें उन्होंने कहा कि “उच्च वर्गों के हिन्दुओं को अंग्रेज़ी की शिक्षा देकर ईसाई धर्म का अवलम्बी बना लिया जायेगा , तो निम्न वर्गों के व्यक्ति उनके उदाहरण से प्रभावित होकर स्वयं ही ईसाई धर्म में दीक्षित हो जाएंगे। ” में सफ़ल होते नज़र आ रहे हैं।
आज हमारे देश को आज़ाद हुए ७५ वर्ष तो बीत चुके हैं लेकिन आज भी हम पश्चिमी विचारों के गुलाम बन उनके हाथों की कठपुतली बन चुके हैं तथा उनके रागों पर थाप देकर आज भी गुलाम बनने का जी तोड़ प्रयत्न कर रहे हैं ।
जिस पश्चिमी भाषा का शब्दकोश स्वयं ही इतना सीमित है जिसमें तुम और आप के लिए मात्र एक शब्द की व्याख्या है उसके पक्षधर लोगों ने यहां तक  कहा है कि ” भारतीय भाषाओं का अध्ययन निरर्थक है तथा इसमें प्रचलित देशी भाषाओं में वैज्ञानिक शब्दकोश का आभाव है । उन्होंने कहा कि यह भाषा अविकसित और गवांरू है । ”  इस कथन के ज़िम्मेदार स्वयं हम और आप ही हैं क्योंकि हमनें कभी  शिक्षा का अर्थ राष्ट्रहित का एक तत्व होना समझा ही नहीं , हमनें अपनी संस्कृति और भाषा का मोल समझा ही नहीं । लेकिन अब समय आ गया है कि ख़ुद युवा पीढ़ी आगे आकर राजनीति को बाध्य करे कि वह शिक्षा के साथ खिलवाड़ बंद करें । आज हम युवाओं को ज़रूरत है शिक्षा का सही अर्थ  समझ सही मायने में उसे अर्जित करना । और यदि आज हमनें इसे अपना कर्तव्य समझ देशहित के लिए क़दम ना उठाया तो हमारी आने वाली पीढ़ी मात्र दास और अनुचर ही बनकर रह जाएगी।  और भारत को शीर्ष पर देखने का सपना हमारे हाथों से रेत की भांति फिसल कर दूर निकल जाएगा।  अगर कुछ शेष बचेगा तो हमारे हाथों में हथकड़ियां और पैरों में पुनः वही बेड़ियां।

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