अमृता प्रीतम जी एक भारतीय लेखिका और कवियित्री थी।
यह कविता उन्होंने अपने आखिरी दिनों में इमरोज़ जी के लिए लिखी थी । इस कविता का एक एक लफ्ज़ प्यार का प्रतीक है । अमृता बहुत बीमार थी उन दिनों।
दुनिया में हर आशिक़ की तमन्ना होती है कि वो अपने इश्क़ का इज़हार करें लेकिन अमृता और इमरोज़ इस मामले में अनूठे थे कि उन्होंने कभी भी एक दूसरे से नहीं कहा कि वो एक-दूसरे से प्यार करते हैं। लिव इन में वह इमरोज़ के साथ तब रहती थी ,जब हमारा भारतीय समाज इस तरह के रिश्ते से परिचित भी नहीं था .
बहुत कम लोगों को पता है तमाम उम्र एक ही छत के नीचे रहकर भी अमृता और इमरोज़ अलग अलग कमरे में रहा करते। जीवन के अंतिम पलों तक लगभग 50 बरस तक इमरोज का साथ रहा। अमृता जहाँ भी जाती थीं इमरोज़ को साथ लेकर जाती थीं।
31 अक्टूबर 2005 को उन्होंने इमरोज़ की बाहों में ही दम तोड़ा। लेकिन इमरोज़ के लिए अमृता अब भी उनके साथ हैं। उनके बिल्कुल क़रीब। इमरोज़ कहते हैं-
”उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं। वो अब भी मिलती है कभी तारों की छांव में कभी बादलों की छांव में कभी किरणों की रोशनी में कभी ख़्यालों के उजाले में हम उसी तरह मिलकर चलते हैं चुपचाप हमें चलते हुए देखकर फूल हमें बुला लेते हैं हम फूलों के घेरे में बैठकर एक-दूसरे को अपना अपना कलाम सुनाते हैं उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं।
इश्क अमर होता है. वो सरहदों, जातियों, मजहब या वक्त के दायरे में नहीं बांधा जा सकता. मोहब्बत की कहानियां, किरदारों के गुजर जाने के बाद भी जिंदा रहती हैं.
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