तुम बरसात से लगते हों
इन फ़िज़ाओं में
मेरी कविताओं के
सुनहरे अल्फ़ाज़ से लगते हो
मेरे सरताज!
तुम आसमाँ के पूर्णिमा के चाँद
और सर्द मौसम के
मंद – मंद सुहाने दिवाकर से लगते हो
इस खूबसूरत से
जहां में
मैं तुम्हें पल – पल महसूस करती हूँ
क्यूँकि तुम अँधेरे में भी
उम्मीद के उजियारे से लगते हो
मेरे बाग़बान जिंदगी के महकते
गुलिस्ताँ के माली
और मेरे लबों की तबस्सुम
और सुर्ख की रुखसार के
शहजादे से लगते हो
अब तुम ही बता दो
क्या सचमुच तुम मेरे कुछ जान पड़ते हो
या फिर से मेरी खूबसूरत कल्पनाओं के
काल्पनिक किरदार मालूमात पड़ते हो ?
-आरती वत्स