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शहंशाह-ए-तरन्नुम मोहम्मद रफ़ी


शहंशाह-ए-तरन्नुम मोहम्मद रफ़ी*
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जिन्हें हिंदी फ़िल्म जगत का ‘तानसेन’
कहा गया, मोहम्मद रफ़ी ने 1940 के
दशक से 1980 के दशक तक कुल
26,000 गाने गाए। मोहम्मद रफ़ी सही
मायनों में एक संपूर्ण गायक थे। उनके
तरकश में शास्त्रीय संगीत, रोमांटिक गाने,
दुख के गीत, ख़ुशी के नग़्मे, देशभक्ति
वाले गीत, रॉक एंड रोल, डिस्को नंबर्स,
भजन, शबद, क़व्वाली, नातिया कलाम
वग़ैरह सब तरह के तीर थे। उन्होंने 14
भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी में
भी दो गाने गाए थे। *मोहम्मद रफ़ी* एक
नेक मुसलमान और मिलनसार इंसान थे।
आज़ादी के समय विभाजन के दौरान
उन्होंने भारत में रहना पसन्द किया।
मोहम्मद रफ़ी को उनकी दरियादिली के
लिए भी जाना जाता है। वो हमेशा सबकी
मदद के लिये तैयार रहते थे। कई फिल्मी
गीत उन्होंने बिना पैसे लिये या बेहद कम
पैसे लेकर गाये। 70 के दशक में नौशाद
ने एक रेडियो इंटरव्यू में कहा था ……
*”मैंने बड़े से बड़े गायक को सुरों से*
*हटते हुए देखा है। एक तन्हा मोहम्मद*
*रफ़ी हैं जिनको कभी सुरों से हटते हुए*
*नहीं देखा।”*
इन दोनों ने कुल 41 फ़िल्मों में एक साथ
काम किया। एक बार एक दूसरे रेडियो
इंटरव्यू में नौशाद से पूछा गया अगर
आपको अपनी ज़िदगी की सबसे अच्छी
संगीत रचना करनी हो तो आप क्या
करेंगे ? नौशाद का जवाब था ……
*”रफ़ी और मैं हमेशा एक हुआ करते थे,*
*उनके जाने के बाद मैं सिर्फ़ 50 फ़ीसदी*
*बचा रह गया हूँ। मैं अल्लाह पाक से*
*दुआ माँगता हूँ कि वो रफ़ी को इस*
*दुनिया में सिर्फ़ एक घंटे के लिए दोबारा*
*भेज दे ताकि मैं अपनी बेहतरीन संगीत*
*रचना कर सकूँ।”*
मोहम्मद रफ़ी का जन्म 24 दिसम्बर
1924 को अमृतसर, के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुआ था। रफ़ी जब सात
साल के थे तो वे अपने बड़े भाई की
दुकान से होकर गुज़रने वाले एक फक़ीर
का पीछा किया करते थे जो उधर से गाते
हुए जाया करता था। फ़क़ीर की आवाज़
रफ़ी को पसन्द आती थी और रफ़ी उसकी
नक़ल किया करते थे। इनके बड़े भाई
*मोहम्मद हमीद* ने संगीत के प्रति इनकी
रुचि को देखा और उन्हें *उस्ताद अब्दुल*
*वाहिद ख़ान* के पास संगीत शिक्षा लेने
के लिए भेजा। एक बार ऑल इंडिया
रेडियो, लाहौर में उस समय के प्रख्यात
गायक-अभिनेता कुन्दन लाल सहगल
गाने के लिए आए थे। उन्हें सुनने मोहम्मद
रफ़ी और उनके बड़े भाई मोहम्मद हमीद
भी गए थे। अचानक बिजली गुल हो जाने
की वजह से सहगल ने गाने से मना कर
दिया। रफ़ी के बड़े भाई ने आयोजकों से
निवेदन किया कि भीड़ को शांत करने के
लिए *मोहम्मद रफ़ी* को गाने का मौक़ा
दिया जाय। उनको इजाज़त मिल गई और
इस तरह 13 साल की उम्र में मोहम्मद
रफ़ी को सार्वजनिक रूप से गाने का
पहला मौक़ा मिला। प्रेक्षकों में श्याम सुन्दर
जो उस समय के मशहूर संगीतकार थे, ने
भी रफ़ी को सुना और  प्रभावित होकर
उन्हें अपनी पंजाबी फिल्म *गुलबलोच*
(1944) में गाने का पहला मौक़ा दिया।
बंबई में सबसे पहले संगीतकार नौशाद ने
रफ़ी को *”आप”* नाम की फ़िल्म में गाने
का मौक़ा दिया। *नौशाद* द्वारा ही
सुरबद्ध गीत *’तेरा खिलौना टूटा’*
(फ़िल्म *अनमोल घड़ी*, 1946) से रफ़ी
को पहली बार हिन्दी जगत में ख्याति
मिली।
1950 के दशक में *नौशाद*, *शंकर* *जयकिशन* और *सचिनदेव बर्मन* ने
*रफ़ी* से उस समय के बहुत सारे लोक
प्रिय गीत गवाए। यह सिलसिला 1960
के दशक में भी चलता रहा। संगीतकार
रवि ने मोहम्मद रफ़ी का इस्तेमाल 1960
के दशक में ख़ूब किया। 1960 में फ़िल्म
*”चौदहवीं का चांद”* के टाइटल गीत के
लिए रफ़ी को अपना *पहला ‘फ़िल्म फेयर*
*पुरस्कार’* मिला। इसके बाद *घराना*
(1961), *काजल* (1965), *दो बदन*
(1966) तथा *नीलकमल* (1968)
जैसी फिल्मों में इन दोनों की जोड़ी ने कई
यादगार नग़में दिए। 1961 में रफ़ी को
अपना *दूसरा ‘फ़िल्मफेयर आवार्ड’*
फ़िल्म *”ससुराल”* के गीत *’तेरी प्यारी*
*प्यारी सूरत को’* के लिए मिला।
संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने
अपना आग़ाज़ ही रफ़ी की आवाज़ से
किया और 1963 में फ़िल्म *”पारसमणि”*
के लिए बहुत सुन्दर गीत बनाए। इनमें
*’सलामत रहो’* और *वो जब याद आये*
(लता मंगेशकर के साथ) उल्लेखनीय हैं।
1965 में ही *लक्ष्मी-प्यारे* के संगीत
निर्देशन में फ़िल्म *”दोस्ती”* के लिए गाए
गीत *चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे* के लिए
रफ़ी को तीसरा *फ़िल्मफेयर पुरस्कार*
मिला। 1965 में उन्हें भारत सरकार ने *”पद्मश्री”* से नवाज़ा।
1965 में संगीतकार जोड़ी *कल्याणजी*-
*आनंदजी* द्वारा फ़िल्म *जब जब फूल*
*खिले* के लिए संगीतबद्ध गीत ….
*परदेसियों से ना अखियां मिलाना*
लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंच गया।
1966 में फ़िल्म *”सूरज”* का गीत ….
*बहारों फूल बरसाओ* बेहद मक़बूल
हुआ और इसके लिए उन्हें *चौथा*
*फ़िल्मफेयर अवार्ड* मिला। इसका
संगीत *शंकर जयकिशन* ने दिया था।
1968 में *शंकर जयकिशन* के संगीत
निर्देशन में ही फ़िल्म *”ब्रह्मचारी”* के गीत
*दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर*
के लिए उन्हें *पाचवां फ़िल्मफेयर अवार्ड*
मिला।
31 जुलाई 1980 को मोहम्मद रफ़ी को
दिल का दौरा पड़ा। बॉम्बे अस्पताल में
डॉक्टरों ने सवा घंटे तक चले ऑपरेशन
के बाद उनके शरीर में पेसमेकर लगाया।
लेकिन रात 10 बजकर 25 मिनट पर
डॉक्टर मोदी ने बाहर आकर उनके परिवार
वालों को बताया कि रफ़ी साहब अब इस
दुनिया में नहीं रहे। उस समय उनकी उम्र
सिर्फ़ 55 साल की थी। भारतीय फ़िल्म
उद्योग के इतिहास में पहली बार मोहम्मद
रफ़ी के सम्मान में दो दिन का शोक घोषित
किया गया।
*ये दुनिया… ये महफ़िल*…
*मेरे काम की नहीं*……
*गीतकार – कैफ़ी आज़मी*,
*संगीतकार – मदनमोहन*,
*फिल्म – हीर रांझा (1970)*
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