ज्योति रथ बढ़ता चले, यह ज्योति रथ बढ़ता चले ।
अंध दुर्गम घाटियों को
बधिर युग-परिपाटियों को
पाट कर, चौरस सतह पर
अथक अविरत आत्म निर्भर
कृष्णपक्षी रूढ़ियों की सीढ़ियां
तोड़ कर चढ़ता चले, बढ़ता चले यह ज्योति रथ !
सोखता कालुषय कर्दम
रौंदता युग का निविड़ तम
रश्मि की संयत लगामें
सतत अपने हाथ थामे
समय सारथि के सजग निर्देश पर
नवल पथ कढ़ता चले, बढ़ता चले यह ज्योति रथ !
सूर्य- शशि पहिये निरंतर
खूंदते मरुथल अनुर्वर
सुरभिवाही रज छिड़क कर
स्वरित कर नव राग घर घर
ढह पड़े बिखरे कंगूरे जोड़कर
स्वर्ण से मढ़ता चले, बढता चले यह ज्योति रथ !
झरें तम के पत्र अति श्लथ
इंद्रधनुषी रंग रंगें पथ
पुष्प बिम्बित व्योम उडुगन
कर मनस आलोक चेतन
खोद गहरी नींव कज्जल रात्रि की
पूर्णिमा गढ़ता चले, बढ़ता चले यह ज्योति रथ !
रचनाकार: डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी