जहां अमीर लोग दिन में चार बार कपड़े बदलते है तो वही गरीबी को तन ढकने तक को नहीं मिलता,कोई आलीशान कोठियों के वातानुकूलित कमरों में सोता है तो कोई झुग्गी झोपड़ियों व फुटपाथ किनारे ही पड़ा रात गुजार देता है। आज आजादी के इतने वर्षो के बाद भी किसी को इतना मिलता है कि खाकर उसका पेट खराब हो जाता है तो किसी को एक वक्त की रोटी के लिए भी तरसना पड़ता है , आखिर आजाद भारत में इतनी बड़ी खाई क्यों ? इसी खाई को पाटने के लिए अपने स्कूल समय से ही वंचित लोगो के जीवन में उत्थान लाने के लिए प्रयासरत चिंतक, लेखक ,आईएएस मेंटर डॉ.विक्रम चौरसिया आपसे अपील करते हैं की आप अपने सामर्थ्य अनुसार इस वैश्विक महामारी में जितना वंचित तबकों के जीवन में रोशनी लाने के लिए कर सकते हैं किजिए , ध्यातव्य हो कि झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले जिन बच्चों के दिन की शुरुआत भीख मांगने, पन्नी और कबाड़ बीनने से होती थी, वे हर रोज नियमित रूप से पिछले कुछ वर्षों से डॉ.विक्रम के द्वारा संचालित पाठशाला में आ रहे हैं , देश के राजधानी दिल्ली के स्लमो के साथ ही अलग अलग हिस्सों के जरूरतमंद बच्चों को शिक्षित करने के साथ ही जररूत की संसाधन मुहैया कराने के लिए प्रयासरत है ,लेकिन फिर से कोरोना के नए वैरिएंट ओमिक्रॉन के चलते इन वंचित बच्चो के शिक्षा पर अंधियारा मंडरा रहा है , संपन्न लोगों के बच्चे तो ऑनलाइन क्लासेज अटेंड कर ले रहे हैं लेकिन इन झुग्गी झोपड़ियों के गरीब बच्चों का क्या? जिनके माता-पिता बमुश्किल इस कोरोना काल में दो वक्त की रोटी की व्यवस्था कर पा रहे हैं , वह अपने बच्चों को कैसे पढ़ाएं यही विचार मन में आने के बाद झुग्गियों , झोपड़ियों में रहने वाले व अन्य जरूतमंद बच्चों को पढ़ाने के लिए अपने कुछ साथियों के साथ ठाने हुए हैं , नव वर्ष के दिन बच्चो को कॉपी पेन मिठाई बाटकर मनाया गया था, जिसमे डीआरडीओ वैज्ञानिक राजेन्द्र सर भी बच्चो के बीच आकर प्रेरित किए थे जो की पूर्व राष्ट्रपति व मिसाइल मैन डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम सर के सहयोगी भी रहे हैं, तो वही इस वर्ष सर्दियों के शुरुआत में ही बच्चो व उनके परिजनों को गर्म कपड़े वितरित किए गए थे ।अब विक्रम के साथ मिलकर शिक्षाविद व लेखिका डॉ.माध्वी बोरसे व अन्य कुछ सहयोगी साथी इस महामारी को देखते हुए ऑनलाइन बच्चो के जीवन में रोशनी लाने के लिए क्लास चलाने के लिए सहमति तो जता रहे हैं लेकिन बहुत से बच्चो के पास स्मार्ट फोन की समस्या आ रही है, कुछ बच्चों के माता-पिता काम करते हैं और वे शाम को लौटते हैं,उनके आने के बाद ही वो स्मार्टफोन से पढ़ाई शुरू कर सकते हैं , आज ये कोरोना के कहर गरीबों को ही नहीं बल्कि उनके भविष्य को भी झकझोर रहा है ,ऐसे में हम सभी के एक छोटी सी कोशिश हमारे नेक इरादों को सफल कर सकती है, मन में अगर झुग्गी झोपड़ियों के बच्चों का अपने सामर्थ्य अनुसार मदद करने का जूनून हो तो कोशिश करके देखिए बड़ा ही सुकून मिलेगा । भले ही हमारी आंखें अमीरों की खिड़कियों के भीतर न झांक पाएं, लेकिन गरीबी का दर्द तो हर चौराहे , झुग्गी झोपड़ियों व गली में रोजाना दिखाई दे ही देती है, समर्थ लोग जहां घरों में पकवानों का आनंद ले रहे हैं तो वही इन बस्तियों के लोगो को दो वक्त की रोटी के लिए मशक्कत हो रही है, ऐसे में आप अपनी सामर्थ्य अनुसार आगे बढ़कर मदद के लिए पहल करें याद रखे कोई आगे तो कोई पीछे एक दिन हम सभी इसी मिट्टी में मिट्टी मिट्टी हो जाएंगे।
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